४2:९५ च्न- >> अमर च्ट तो न्यड >८5 )' अभिमन्यु की आत्त ८. शाज-*द् याविंय १६४६ प्रकाशक * विश्व-साहित्य ५१६१) राजामण्डी; मं गरा कै मुद्रक * गणेशप्रसाद सर मुद्रक मंडल लि०); १७६ मुक्ताराम बाबू स्ट्रीट कलकत्ता-७ आवरण « कमल बोस बाइंडिंग : इस्टरनेशनल एऐल्टरमाइस् ञ्ञ १५ नेताजी सुमाष रोड, कलकत्ता-२ अभिमन्यु की आत्महत्या ( कहानी-संप्रह ) हि वपति- शमी ६६० ४. पृ राज नर थादव प्रडधट्चरू दिप्नमाट्ित्दि 5१९१, शमी, इल्कर #८ 64 #ए #० ४ ऐक्टर ओर अदृश्य आँखें अभिमन्यु की आत्महत्या हत्यारी माँ अन्धा शिल्पी ओर आँखॉवाली राजकुमारी खुले पंख :- टूटे डेने १७6६ ब्रा आदरणीय भाईं ग्ंगपती प्रसाद लोेज़ाम क३े ६८०७) न्स्न्ण्सल्ज् धतुम गा दो मेशा यान...” “आपने इन्हें परखा, मेरी मेहनत को देखा-- वस, आपकी यह हमसदद मुस्कुराहट ही इनकी क्रीमत थी और मुझे मिल गई**-*" और पारखी की यह हमदर्द मुस्कुराहट मुके मिलती रहे, में फिर ग्रलाज़त और गंदगी में लिपटूगा $ फिर ख़ौफ़नाक- गारों और घाटियों में उत्ततूंगा और फिर भयानक अज़दहों ओर अजगरों के याथों से कीमती मणियाँ ओर हीरे चुन-चुनकर लाऊगा /” राजेन्द्र यादव दिल्‍ली, ३-२-५९ ऐक्टर और अच्च्य आँखें ऐक्टर और अहर्य आँख साफ़ कहँ तो म॒झे इन ऐक्टरोंक्रे ग्रति कभी श्रद्धा नहीं रही । जाने को, मैं इन्हें नम्बर एक का भूठा, मक्का, आवारा और छफंया समभता रहा हैं। इंतो आती दे उबर ये लोग रेकम उस्टी-सीधी किताबें रूगाकर पोज देते हैं... लेकिन भुवनेश अभिनेता ही नहीं; नेता भी था। इसलिये इन- लोगों के प्रति विशेष आदर था भाव न रखते हुए भी मुझे इस व्यक्ति में थोड़ी दिलचस्पी दोनी स्ामाविद थी। यों बहुत से अभिनेता आये, थये हे ।.. यह बड़ी घृमधाम से अपनी नास्यमंहली फे साथ इमारे मगर में आया था और इदर शदर भें अपने गाटवों की सपलता पा श्ट्टा घम- बाता'हुआ बद देश-मर का दौय पर रह था। उसके बुछ नाटकों करी 'ती अखबारों और बचे लोगों ने देह तारीछ वी थी! कष्स्‍-निर्माण में उनका बढ़ा मद माना गया था। दरअसल इसी बारण भेरे मममें उसके नाक देपने की भी उत्तुश़्ता थी) बों तर उठके अभिनेता होने का सवात है मैं उसकी इृश्जन मे बरता दोऊ यह चात नहीं थी। घृणा थी मुके उसके नेतापत ते) बद अपने सिनैमाई घीयन क्री सपलता के सद्से अच्छे दिनों में रद्ठमंच की उटामे वा बीड़ा ३७ श्स ओर मुड़ पड़ा था और चूंकि अपने समग्र के ' सदसे प्रधिद्ध ] ॥। 8 ॥ ६5६ सिनेमाओं में व दीरो का अभिनय कर चुका था इसलिये उतत: कदम ने उसे सचमुच का दीरो बना दिया था। जर्दोँ बद जाता दही जनक जब के, गन १५ | | 434 *५७ लोग उसके आस-पास जमा दो जते। भीड़ सैमालना मुर्कि , ह श्जु त्र ते वे ७4225 तह न प्र गत हज 2 है 6 डपाप् शक जाता। बड़ी-बड़ी संस्थार उसे मान-पत्र देतींओर स्का | ््एि में उसके भाषण होते। हमलोग अक्सर व्यंग से टरंसकर कहते कि व अपने सिनेमा के दारो होने का यश्य बयूल कर रहा हैं | खेर, शहर में उसके नाटकों की बड़ी चर्चा थी ओर उससे हवाई शोर था उसके भाषणों, स्वागतों, और अभिनस्दनों का | रींट्डर्ि जीवन में एक मसीहा आ गया था | कुछ दोस्तों के साथ मुझे भी उसका एक खेल देखने जाना पड़ी | रजत-पट पर मैं उसके भव्य-व्यक्तित्व का प्रद्ंसक् रहा हूँ। और नहीं बोढूंगा, नाटक में उसके अभिनय ने मुझे, बिभोर कर दिया। दीं नाटक ही उसका असली क्षेत्र हे। अच्छा किया जो इधर आगया। रह-रह कर मेरे रोमांच सजग हो आते थे और दिल से गहरी सर निकलछ आती*”'हाय, इस वक्त मेरे फ़ल्यने परिचित न हुए, देखकर 5 जाते"*“अजब जादू था कि में तीन घण्टे कुर्ती से चैंघा बेठा रहा स्वाभाविकरता से दृश्य बदलते थे, लोग आते और जाते ये' जैसे ते कुछ अपने-आप होतो चलछा जा रहा हो--अभिनेता केसी आर्खेर्ल निश्चिन्तता से बोलते और सारे कार्य करते थे**'स्व॒मावतः ही भुवनेश अभिनय सारे नाटक पर छाया रहा | यह मेरे छिये नया अनुभव थी” लेकिन वह सारा अनुभव नष्ट हो गया, अन्तिम अंक का अन्तिम ई भुरू होने से पहले गले में सफ़ेद मल्मछ का तह किया हुआ दुपट्टा अरे बड़े कल्वत्मक दह्ल से मंचपर हाथ जोड़कर भुवनेश आ खड़ा हुआ न अपनी मजबूरियों और तुच्छ प्रयल्नों का जिक्र कर उसने सूचना दी 2 की भोली प्रसिद्ध वयोदद्ध कवि क-- को जायेगी । भीडी का थ्था कि 2 अभिनेत्री कोली फेलाकर अन्त में दरवाईं खड़े हो जाते थे निकलने वाले विगलित मक्ति से अपने सेंमें अभिमन्यु की आत्महत्या ५0२ 5 रे "४२३ कि - ् न्‍ आज अनफ अत्वय 3. - फेन्र भुवनेदम्रे खूपयूरत चेहरे के दर्शनों से अपने को निहाछ करते और अदानुसार भोछी में कुछ डालते 'इस्त कोली को मी झहर मे बढ़ी घूम थी। किसी दिन भोली किसी सार्वजनिक शिक्षा-सस्था को जाती तो किसी दिन माइम-मिनिस्ट-फ़ड को | छोग भुवनेश के त्याग और जन- £€! वा की अशसा करते नहीं थ़ते थे .. है जत्र पास से निऊुलछा तो मोटी में पढ़े मुड़े-तुड़े नये-पुराने नोटों, # भर हिक्कों को देखते हए दोस्त से ज़ोरसे बाल: “नेता बनने का मैं समझता था कि उनकर बह सकपकायेगा या भुँभलयेगा, लेकिन ८ वह बड़े चुज््गाना ढंग से मुस्कुराया | घस्कुराइर . बोली : 7 बच्चे हो....।* और जैसे हे मुके याद आया 'क्ि मुबनेश मैंजा डुआ ऐक्टर है, # £ आगे जाकर ठिठऊ गया। ऊपर बाछे ओठ और नाक के नीचे की ” भाद्ी नाली पर फलनेवाली उसकी मुस्कुराइटने जैसे मेरे भीतर सोचे , दिखी का कोच दिया | मन में आया, भाश्चिर देखूँ तो सही कितना ' गहरा ऐक्टर है। भोछी के बाद उसे एपॉइण्टमेप्ट्स और सा्ताक्षर लेनेबाजों ने प्षेर लिया था। अधिराश सिनेमा मजनू-सटूडेण्ट्स थे, और उनका खयाल था कि अगर बे फ़िसी परह भुतनेश को प्रभावित कर हगे तो निश्चय ही 'ऊेसी सिनेमा के हिये उनके केस उसके नाठ में घुसने के अवसर प्रिल्ठ गया तत्र भी कोई बात नहीं ; मे किसी फिल्‍म के हीरो बने-बनावे रक्खे हैं। हमे दो-एक उदाइरण हि £४/॥ ;॥ न्ड ४ "5: ] 35 ६ ं हम हि | के क्री ४ में बोल्ा--. । डेडी, ( उरी लोग उन्हें इसी नाम से उुकारते थे ) आपसे इष्टरव्यू छेता है [? डेडी के मुँह पर शाढीन पस्कुयइट आगई | मानो थों पेफ्टर और अदृश्य ञाँखें ३ हटा ्ड अंग सरकामन्कमकी त या नस आम+की, न कल ४७ क हे जे 54% ७८० >> ९ हवा शिड्नि टस ६,१३९) 5१ त्तो थूं; रा? ल्््मि मे सी हाग सत्य ५७ ७ इप 5 ०, 5. 7 वायटम मद भू स्न्म्‌ ०.० सक के कक - न जज के जकन्‍व लक. परहेज शा प्र 45 * 3) ६ समझना ज्यांदगी ४॥। उसने छूट सदन छा । लि गम "ता पढ ना यक हर अन्‍्न्‍्की ५ कु बा डे तह त्कप्का डर श्र लत मद 7४ ह। चर यह फ्ठिर जीन द्पा ४7] ७4 6,४. $; *६, ग्ग[*- ८ ६ | ३ वह] +] चढ़ाकर माय पर बल दात्य और सीम-चार एपॉदि््मप्दा * “कूल तो लडकियों के स्कूल में मापग देना ट्र; दोपदरत कक मो के साथ लंच है, सनन्‍्तया सो साइऋ-छब्र की सीर्टिंग की ग्रिल आर: है परनों साटित्िक-संस्था 'मिुक में प्रभान अतिथि के हैं | न गया है*--” फिर मजबूरी से देसा : “पोसा समय बाँध दियां ६५ है 5 क्या क़्श्ा > ॥० 0 हनन हक | हवन कहर सु. हु जा5 ग बल ट गा हैं ओर क्य छि अच्छा, परसा रालस, झुबे/ ४० ८ क्र न श्ड ने न ज हर दि ९९ प्रास किदुक भ्ं ता मद ह ह हे हप। जार [ एगा, 4०४ “परसों सत्रह आठ बने | मैने आश्यत होने के ल्यि रा अर्थात्‌ एक घंथ,..में मन ही मन दसता हुआ लीड आवो:*- ४ त्रोल्चाल में भी ऐक्टिंग करता है: चाहे दिनमर पड़ी-पड़ीं के फूकता ओर दराब पीता रहे लेकिन यद्ध जताता है कि देखी गा. व्यस्त हूँ। मगर फिर ऐड्टर को स्टेज से अलग देखने के मुझे आउनन कर लिया | सुत्रह आठ बजे वही फ़िल्मी हीरो घन जाने के सपनों से आई भक्तों की भीड़ से घिरा भुक्‍्नेश रूबी में फ़्श पर दीवार के सही था। लिनिन का पीले रंग का दीला-दाल्म कुर्ता और वही मु मुद्रा. .आकप्रेक और जादूभरी ...। वह गाव-तकिये पर कुदनी क्‍ चढ़े नाटकीय अन्दाज़ से कुछ बता रहा था। बीच-बीच में बात वीं आँखों में ऐसे खोये-खोयेपन का भाव ले आता था कि सिगरेट “ छलियों में अनाथ-सी सुल्गती रहती। ओता उसकी हर में आँखों से निगल रहे ये और हर शब्द को नेद-वाक्य की तरू की अंगुल्याँ फेलाए पी रहे थे...में समझ गया; महंत की र्पेः हो रही है... 0) हे अभिमन्यु -की - आरतमंह धन झी मे देखते ही पह मुस्कुराया. एकदम नप्नता से उठ आया 5 “आाइये,... इये।” भीड़ में छदकों ने सस्ता छोढ़ दिया और में जेसे अरने पर उसके पास तक पहुँच गया। उसने आधा भके हुए ही अपने शाह हार्थों में भेरे हाथ ले लिये और पास में सथकर चेठा लिया । फसे दुगुनी उम्र और इतनी प्रतिद्धि का आदमी यों मेरे प्रति नम्नता इशित करे, यह सचमुच मुझे बढ़ा दृतिम लगा । फिर ध्यान आया; £ नम्नता मेरे लिये नहीं बढिक इन दर्शकों को प्रभावित करने के छिये । मैं मुस्कुरा उठा । “बस एक मिनठ फी फ़रसत,,.” उसने भाफ़ी फे लद्ज्े में कहा ०जी हाँ, आप अपनी चात जारी रखिये” | हड़कों की ईर्ष्या और शंसा-भरी निभाई मुके अपने दरीर पर चुमती महसूस हे रही थीं। ' मेरे सौभाग्य को सराह रहे थे कि इतनी बड़ी इज्ज़त बख्शी गई है । उनकी निगाहों में काफी ऊँचा आदमी था। “हैं इनफो समझा रहा था कि बेढे, घर जाओ और पद़ो-लिलों । मे चेसे इज़ारों भोले-भाले छोग रोज़ बम्बई जाते हैं और वहाँ बोमा गैते हैँ । ऐक्टिंग इतनी आसान नहीं है मितनी दिलाई देती है) इसके छग्ने बड़ी लगन और साधना चाहिये। आप लोग विश्वास करेंगे ! ने तो अपने बेटे की मी व्वत मार कर घर से धाइर निशाल दिया था+-- गी झृछ भी बनो, अपने बछ पर बनना, बाप के बूते पर इस हाइन में तिआमा । आए में से कोई कर पव्रेणा इतनी सस्ती १ बरसों मैने एस्सी-कम्पनियों में पर्दों सींचने का झाम किया है...!” बहू पिर प्रवीत में सतो गया “अजब ये दे दिन भी....दिन मर में चार आने का शन्प खाते ये...एक आने थी दा और तीन आने की रोटी । बढ़ा मे गन्दा-सा होटछ था। सरिसयों मिन-मिनाया करतो थीं। एऊ [पथ से मकिसियाँ उड़ाते जाते थे और दूसरे हाथ से रगते थे...आज मी उस शाइर में जाता हैं तो वहाँ बाऊर पाना जरूर खाता हैँ। आब वो ऐक्टर भौर अदृश्य आंखें | दिन नहीं रहे...याद रद गई दे--आज मी मन भीग | चहुत चुड॒ढा हो गया है शोब्लवाला | वेचाय बढ़ी खा तिर का हा कहता हू' “दादू, चलो मेरे साथ चलो। मेरे पित्ता पा किसी दोस्त से कहकर झानदार शेब्ल खुलबा दुंगा। ४ गला भर्स आया और आंगों में आँयू आ गये । उन निगल हे क्र बोला-- “दोस्त से दी तो कदना होगा | आप जानते दी ए मेरे हक । अपना कुछ है नहीं । मैं तो भाई, फ़कीर आदमी हूं। एई के कि ऐपिंटप और, स्टू-मंच जैसी सांस्कृतिक चीज़ों की लाग रे इतनी हिक्कारत से क्यों देखें! और आज जितना कुछ छा डई है आप ही लोगों का आशीर्वाद दै। मैं अकेला द्वी तो नहीं हैं' 4:9....> (५ जब, $। || लोग हैं। मेरे साथ भूखे रदे हैं, ज़लालत और ज्इमत्‌ की जल चिताई है बेचारों ने। इसलिये आप मेरे यहाँ किसी का नीकर पाएँगे। ज़रूरत होती है तो में खद सेठ खड़े कराता हैं। ४+ नाटक कम्पनी के मालिक हैं। पिछले दिनों चीन जाना हुआ; | वी सरकार अपने कलाकारों के लिए कितना कुछ कर रही ६ ! कु की वात का तो कहना ही कया है। यहाँ हमें ज़्रूरत के चक्ते 7 डिब्चा नहीं मिल्ता। खेर, फिर भी मुझे! किसी से कोई धिरककीयत है....सरकार के पास और भी तो बहुत-से फ़ौरी ज़रूरत के काम पंचवर्षीय योजना के निर्माण के काम हैं ।...मेरा खर्चा कुछ ज्याद ये काम करनेवाले भी तो मेरे बच्चे है। इन्हें भी तो भूखा नहीं सकता । इनके लिये कभी-कभी सिनेमा जाना होता है, कमी हियः बनाना होता है। और सच लाकर इन नाटकों में कोंकता हूँ । कहते हैं--डेडी का दिमाग खराब है। अब है भाई, और कया “कछ लोग प्यार में आकर इसे मिशन का नाम दे देते है ।” फिर “ 5 सकर चोल्य--“ज़िन्दगी में रिहसेल, ऐिंटग, डायरेक्शन के नौ ह पाँव कूयने पड़े हैं कि आज मेरे पॉव सूज गये हैं। “न ठीक रखने के लिए, जिस दिन आध-घण्टा शी्षसनन 7 «प्र ्फ् 203 श्र १ है ५ श्ते + 0 हम 3 ४3 कह “थे ७ हा ते ६ 0 ॥ गरी प्‌, श् मे >> उस दिन वाम महीं कर सकता। उन्होंने पाजामा चढ़ाऊर अपनी खुजी-सूजी पिंडलियोँ दिखाई” । सुबनेश जो बदता था, असे पूरी नाटक्रीय मुद्राओं फे साथ कदता था। दर्शों के चेंद्रों पर कमी करणा ले आता, कमी ईंसी। इस ग्रे दब्दाइमग्बर के पीछे छिपी भावना को मैं जानता था। स्झेदर को गमावशादी मापणर्कर्ता होता ही चाहिए, यह उसता पेशा है | जत्र उसे गेता का रोल अदा करना है तो नेताओं की मापा घोलनी चादिये। मैंने बहाँ भुयतेश के अमिनय की प्रशसा की वहीं छोगों की वेबकफी पर तरस भी आता रहा कि ये छोग इतनी-सी बात नहीं समझ पारदे । तभी सहता एक ऐसी ज्ञात हो गई कि दर्शकों वी श्रद्धा भुक्‍्नेश पर चौगुनी बढ़ गई, झेकिन मेरा मन विरक्ति से भर उठा । घारीदार गजामा और मैली-सी वमीज पहने बिखरे बालोबाला एक पंजापयी आदमी होगों के सोक्ते-रोकते भी भीड़ चौरकर सोधा डेंडी के पास सके आए पहुँचा। पछे-पीठे और मी दो आदमी लपके आये शायद इनसे ही छुटकर बह यहाँ तक आया था। मे इन पीछेवाछे ध्ेगों को पदचानने में कोई दिश्कत नहीं हुईं। इनमें से फ्छ एक भदारी चना था। बह पत्मात्री भुबनेय के कंदर्मों पर गिरमे फो दी था कि उसने उसे श्न्धों से थाम लिए--/विरादर, शोठ तो घुछ मेंद्र से । ऐसा पागल रपों दो रहा है ! स्पा करू तेरे लिए ह” दिचमियों में थेने के बीच नाक सुरइते हुए बिता ऊपर देसे बढ घेटा-सुके बचा को मेरे मालित, में अपना सर चुछ पंजाब में थो आया हूँ) जान चइन है) वेय है। चार दिन से मैँइ में अन्न या दाना नहीं गया है... प्र ! भूयनश बोहछ्य-'े, ये भी कोई सेनें दी गए ए. यार ! डिजाबी आदमी है, 3३8, और सीना तान के राद्भा हो ..-भीस क्यों माँगता है, अपना एक माय | ले, दृछ १२ छे। खबरदार, भीसय ऐक्टर और अदृश्य आँखें ४ ७ मत माँगना |” और भुवनेश ने इआरा किया तो पास बंठें एक साहब ने नोटों की एक गड्डी उस आदमी को दे दी। भुवनेश बोला--“हें जा, ग़रीब आदमी हूँ। इस वक्त पचास झुपये से ज्यादा नहीं दे सकता। जा; कोई छोटी-मोटी दुकान लगा लेना ! फिर यह जैसे कोई अत्यन्त ही ठच्छ बात हो इस तरह दशकों की और मुखातित्र हो गया था। पंजात्री को जो अभी-अभी अपना सीना तानकर बताया था सो अभी तक यों ही तना था। संस खींची और भुजाए' फुलाकर बोछा--''मेरी उमर हो गई है। आप जवान आदमी हैँ। मगर आज मी ललकारता हूँ, आप में से हे किसी का इतना सीमा ? पंजा लड़ाओगे जवान ! छो; ये देखो मेरी सुजाओं के मसिल्स | यों नहीं, दबाकर देखो।” ओर कई वबनस्पतिया जवान लिलीपुटियनों की तरह दोनों हाथों से बाहों के मसिल्स दब्ा-दवाकर देखने छगे; क्‍योंकि एक पंजे की पकड़ भें उसकी बाँद को लेना सचमुच संभव नहीं था। एक हाथ से वह उस पंजाबी को अपने चरण छने से रोकता रहा । नाठक ! नाटक ! नाटक ! यह आदमी इस वक्त भी नायक करने से बाज नहीं आ रह्य । लोगों की आँखों में केसी आसानी से यह धूल फोंके चला जा सकता है। क्‍या इतना भी मैं नहीं समझे सकता कि मुमे ओऔर दर्शकों को प्रभावित करने का लूटका है और यह पंजाबी इनके दल का ही कोई आदमी है। वह गद्रगद कृतज्ञ-माव से नोट लेकर अब तक जा चुका था ! नोटों की गड्डी भी पहले से कैसी तेयार बंधी रखी थी। नीलाम के अखाड़ों में भी तो छोग इसी तरह मिले रहते हैं। सत्र कुछ कसा पूव-नियोजित-सा होता चढ्ा जा रहा है। “उसके चले जाने के बाद भुवनेश ने उँगलियों से दोनों कोर के प/छकर कहा-- “जाने किस को जरूरत कितनी बड़ी हो ...दिन में । रे एक भछाई का काम हो जाय तो सारे गुनाह माफ़ हैं।” अभिमन्यु की आत्महत्या पतन नताजाए७ओ 2४ अत पता नहीं फिर उसने मेरी आँखों में क्या देखा कि सिगरेट ऐश्-्ट्रे दुसकर एक नाठकीय झटके से उठ खड़ा हुआ --“अच्छा, अन्र बढूँगा।? एकबार नम्नता से दीक स्टेज के पोज्ञ में हाथ जोंढ़े और गरीवर के कमरे की ओर मसुड् पड़ा--“ आइये माई, चरके ।” मुझे छगा से दोंगी आदमी के पास मैं आया ही क्यों ! ४डेंडी, आज हमलोग शहर घूपने जायेंगे |” जसे ही भुवनेद में मिरे भें प्रवेश किया कि कहीं से रग-बिरंगे कपड़ों में त्तीन-चार नवशथुव- तेयों ने आकर उसके चरण छुए ! भुननेश ने स्नेह से उनके खुलि बालों गले सिर पर हाथ फेरा | थे दायद नहां-धोकर सीधी ही आ रही थीं | ह बोछा-- तो मया आज नाश्ता नहीं होगा साथ १” “वहीं बहीं कर लेंगे हम छोग | आप कर ले - ” जिस लड़की के सिर पर हाथ रखकर वह बोल रद्दा था, उसने उससे सदे हुए. ही छाड़ पं आकर कद्वया--/ममी को भी ले जायें, डेडी !” मैंने देखा, यही छड़की तो माटक में परसों भुवनेश की पत्नी चनी थी । यद्द तो मुश्किल ते बाईस की होगी । उसमे तो तीस-पेतीस की छग रही थी | मेकअप देगा। लड़कियाँ सभी काफी खबसूरत थीं और उनके अंग उठ गक़डी झ्लीछ के बन्धन में भी थिरक उठते ये । (अच्छा ले जाओ। क्या करें, अऊैले ही करेंगे नाइता। ओर देतो, इन्हें प्रणाम फरो। ये बहुत बच्चे आदमी हैं ।” नाटकीय अन्दाज़ में मेरी ओर इशारा करके बढ घोला । जब सभी छड्कियों ने पठपुतलियों का तरह प्रणाम किया तो मैं मेंपकर स्ाछ हो उठा। फैमआइट इसलिए थी कि अपने यहाँ के दिखावे के लिये वह ज्बईस्ती ग्रुक्त प्रद्यन क्‍नाये दे रहा था। भुवनेश्ञ सबका नाम बता रहा था--- “यह रशीदा है; यई उम्मी है, यह मीझ है...सभी मेरी वेटियाँ हैं। विचारियों मेरी खातिर घर छोड़-छाड़कर यहाँ भटक रही हैं। घरवा्ों फा विश्वास है, यहाँ तक भेज दिया। गलत करती हैं तो घुरी तरह शॉट भी देता हूँ, लेकिन सारे शो की जान मी ये ही हैं । एक्टर और अरृश्य आँखें ६ चत था उसी समय कमरे में एक प्रीढ़ा ने प्रवेश किया | वह वंगाली ढं। की साड़ी पहने थी। उसे देखते दी बद अपनत्य के स्निग्ध स्वर : बोला--“और लीजिये, यद रदी इनकी ममी । आबरमें जो भी उसमे सत्रसे ज्यादा खन इसी बेचारी ने दिया है-“बढी तक़ल्ोफ़ दी. मैने इसे ...अच्छा, तो तुम छोग घूम आभो | लगता है सत्र कुछ पद से पका-पकाया है...।” नहीं ...नहीं---नहीं ! मैंने मन ही मन कद्दा | ये सारे झब्द मे बहुत तरह सुने हैं, चहुत बार सुने हैं...सब्र खोखले हैं, सत्र भू हं मुझे सिफ़ इतनी बात याद रखनी है कि में नाटक-मण्डली के अ भिनेता के बीच में हूँ जौर यह सब्र कुछ जो दीखता है--माया है, दिखावा हे मुझे नहीं भूलना कि भुवनेश सत्रसे बड़ा अभिनेता है । इसी ने ् अभी दो-एक दिन पहले लड़कियों के एक हाईस्कूल में अपने नम्रतावे' में कहा था--“आप कल होनेवाली माँ हो, आप मेरी माता हो, आओ मुझे आशीर्वाद दीजिये कि आपका यह वेटा बाहरवालों के सामने पुरा भारत का कोई गौरव-चिन्ह दिखा सके |”. --वेचारी थिंसिपल को पसीर आ गया था। सारे शहर के छोग हँसते रहे थे । मगर अपनी मंड* की इन लड़कियों को “माँ” नहीं कहता, इन्हें तो 'वेटियाँ” कहता है....पह सलज-भाव से मुस्कुरा रही थी। दीखी लेकिन छिपी नजरों से में इन नकली वेटियों को देखा। स्नेह तो वेटियों से श्रुवन को नह दिखाई देता है। इतने प्यार से सिर पर हाथ रखकर कोई अपनी वेः को कहाँ अपने से सथ्ता है...आदमी हिम्मतवाल्य है। पत्नी के आओ पर सकपकाया नहीं, न ही वेटी को घीरे से अरूग हटाया। मैंने गे से ममी के चेहरे पर ताड़ने की कोशिश की कि वहाँ कहीं ईर्ष्या, जर्ले की भावना मिले तो कोई नतीजा निकाल ... “अम्मा पूजा पर ही हैं ?? भुवनेश ने पूछा और फिर बोल्- ४ अच्छा तो फिर तुम जाओ, देर हो है। जल्‍दी आना--कहीं खा को भी वंठा रहूँ ।...जाइये ।? उसने एक हाथ छाती पर रखकर ० ४ '.. अभिमन्यु की आत्महत्ट दग्वाज़े वी ओर फैल कर ज़रा भुके-भुके टीक उसी तरह उन्हें रास्ता दिखाया जैसे परसों मद्वारानी को दिखाया था....हाँ की फ़िज्ञाओं में नाठकीपता है....! 'ऐे मच्चे मायनों में खामावटीश हैँ ।” उत्तने मुग्ध-दृष्टि से उन्हें जाते देसते हुए कद्ा--'खानां बहते हैं घर वो, और दोश फा अयथे होता कधा। अर्थात्‌ जो कन्वेपर घर लिये घूमे। अन्न मैं हैं कि हारा परिवार लिये शइर-शदहदर घुम रहा हैं । क्योंकि बिना इनलोगों के मैं दुछ मो नहीं कर सकता - थोड़ी तकलीफ ज़रूर होती दे लेक्नि जितने काम करनेवाले हैं सबको यह तो मददम द्वीता रहता है कि सचमुच इमछोग उनके मां-बाप की जगह हैं ! मैंने हमेशा कोशिश को है कि मेस पियेटर एक इन्स्टीव्पदन बने--- एक परिवार, ..।? मैं बुरी तरह बोर हो गया था। पैशेवर माटक और नाटककार क्ति तरइ के इन्टटीट्यूडन होते है, खुब जानता हूँ । गाछ गे, कूस्दे मठका-मव्यस्र चलनेंदाली बेटियाँ, अमी बाहर विसी से कमर में हाथ डल्वाये इटटाती चली बा रही दोंगी । एशघ शूटिंग के बच्त जो इन बेग्यों की इरकते देसी है वे स्या सहज ही दिमाग से निवरल जायेंगी है हमछोग दी-एक कमरे पार करके फिर खुले से कमरे में आगये | त्रिल्चुल बारात का दृश्य था। क्मरी में धरती पर बिछे विर्तरें पर खड़े वोई स़ाहय कपड़े बदछ रहे थे और रढीटिंग यूथ में कीई भावी 'ग्रेगरी पैक #श करते चले जा रहे थे । वहीं गर्दन ऊपर तान तानवर शेव हो रदी थी और कहीं एक साइब दूसरे की टाई की नॉट ठीक कर रहे थे। इस बात के प्रति समी छोग 'काशस' थे कि बाहर ट्डक्यों, मिरियों से एड़के और रिक्शेवाले इनकी मोँकी छेने के लिये जरूर वेताबी से मेंडरा रेट एकन्त में हमलोग एक मेज़ के सहारे बैठे चाय पी रहे थे ! पेशोयर इप्टर्यूकार को किन किन बातों के जानने की ज्ञसूरत है इसे शायद ऐक्टर ओर अद्वय आँखें ११ बदाग हि नायक अपनाये हुए इसे तीस साल हो गये। उस समय पह मुण्छिक से अद्गारद् था रह्य होगा. ..तीस साल छगावार स्टेन पर वाम बरते या दिमागी रूप से स्टेज शी दी दुनिपाँ में रदते हुए; सा स्टेज भौर पाह क्री विभाजन-रेटगा श्यके सामने से विव्दुल ही नहीं मिट गई होगी! क्पा सथेवन-अयेतन रूप से अपने को यद्द तेज-हायश्टों, फैमरे के ढगो और दर्शझों वी आँसों के आगे ही हर समय नहीं सोचता रखता होंगा। पत्नी से बात करते समय, अरे में बच्चे को खिलाने या यहाँ तक हि सोते समय्र मी यह इसके दिमाग़ में नहीं घुसा रखता होगा ह्िजोी दु्ध यह कर रदहां ऐ वह सच नदों, बद सनमुच नहीं कर रश--बहुत दूर कहीं दर्श मो बी अपछक देखती अदृश्य आँसे ईं और यह सब यह उन्हीं के लिये फर रहा है ? भारतीय मायावाद की कसी भच्छी अनुभूति है। अच्छा, यद भी तो दो सत्ता है कि यह उस स्ेज के जीवन मो ही सथ मानने लगा ही। भौर बाकी सारी बाते उसे इगी तरह मक्ली झामे एगीं हों जैसे हमें स्टेज वी छगती हैं। इसमे इस बेचारे का दोप भी क्या; तीस साठ यम नहीं होने नितना दी मैं उस्ते बारें में सोचता, उसे न्याय-ठिद्ध फरने की कोशिश करता उतनी ही मुझे अपने ऊपर शेुूँक्लादद आती! मैं थे अपने की बड़ा सूइमन्धप्य छगाता हूँ क्य्रा कोई मी ऐसा क्षण नहीं पा सड़ता जब इसे ऑफ द स्टेज देख सकूँ । जेग इसका सश्ञा रूप खुछ कर आये, जर यद्द ल्विग्यथ मुख्कुराइट, यह से अग-चाल्न, यद्द भाद्श और मिशन की बाते, थइ नाठकीय मप्नता और शिप्ट्ता न शे"“! मे इसे कब देखूँ, जब कुर्तेमें बदन न होने पर यह मुँभलाकर उसे नौज़र के सिर पर दे मारता ही, जय इसकी पत्नी पंशे निकाल- निवाज़ पर उपकी इन बेटियों फे साथ इसके रिपते चसाम रही हो ।? लत बालों को मुद्दी में जऱड़ यद गिर श॒क्ाये बैठा हो कि दसकी ज़िन्दगी घिरे एक भुठावा और धोखा रही है--दसने दूसरों की रुचियों फे अनुवार डिसे गये, दूसरों के नाटकों को ही अपना जीवन बनाया है मकर थौर जरश्य थाँखें ३ री मुस्कुयाइद । मैंने श्रद्धा से दवाथ जोड़े तो मुस्कुराइट और मुखर हो ॥६। बे बोलीं कुछ नहीं । वहाँ से ज़रा हठकर भुबनेश बोला--“अक्तर ये मेरे इर नाटक में उपखित रहतो ६! देखतो रहतो है भोर उन्हीं की निगाहों की वीकत है जो मुझे स्टेज पर एकदम बदल कर रख देती है ।” अठ है मैंने मन में ही काफी जोर से क्हां। प्ुम सफ़ेद भूंठ बोल रहे हो, अभिनेता। घुमने सिर्फ लोगों को बहकाने के हिये इस वेजशन माँ को यहाँ बैठा लिया है और अब अछग ले जाकर तुम मुक्के अपनी मातृ-भक्ति के उद्गार दिखा रहे हो | क्योकि तुम जानते हो हर महान आदमी को मातृ-सक्ति होना ही चाहिये और इन दिनों चूँ कि तुप्र महान्‌ व्यक्ति का अभिनय कर रदे हो, इसलिये तुम्हे वे सारी बाते कहनी, करनी और दिखानी ही चाहिये जों एक आदर्श महान व्यक्ति को आवश्यक हैं। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि ऐक्टर बनने हे पहले तुम माँ को मार-पोटकर ज़रूर उसके गहने छीम ले जाया कस्ते थे, उन्हें जुए या शराातर फूँक डाला करते होगे । और आज भी तुग्दारी बेटियों को लेकर जन्र तुग्द्वारी वीत्री से लड़ाई होती होगी और यह त॒ग्हारी पूज्य माँ बेठी-इंठी चोौखद से सिर फोइती होगी कि बीती के कहने में आकर तुमने माँ को भौकरानी बना दिया है--या यह लुड़ेंल जो खाना देती है बइ सिर्फ गाय-बैठों को ही दिया जा सकता है [इस सुल्म्मे की असलियत में जानता हूँ, यो आसानी से हार नहीं मानूँगा । और इसश्ये तो मैं इस वक्त (विंग! मे आया हूँ। अभी नाठक शुरू नहीं हुआ था) मैं जानता था कि नाटक शुरू होते ही भुवनेश एकदम वैदछ जाएया--उसके ऊपर नाटक छा आयेगा। तब विंग के घाइर और विंग के भीतर दो-दो मार्टकों को सैंमाउ पाना उप्तके लिये मुश्किल हो जाएगा। अभी तो उसे फ़र्सत्त है इसलिये इस र्थदे और मुखौरे को सैंभाछे रह सकता हैं, डेक्नि उस भाव्क की गति जब तीत हो जायगी, जिसे यह असली मारक समभ्दे है, तब की बात मैं ऐक्टर सौर अरश्य आँखें ५५ पदले से जानता हैँ । स्टेज पर भगवान, छुद्ध का अभिनय करने भीतर घुसते दी पहले पर्दवाले को कापडे रसीद करेंगा कि समय पर पर्दा क्यों नहीं गिमया। उस क्षण का में क्या करता, यह तो की मालम; लेकिन हाँ, में था उसी क्षण को प्रतीक्षा में ! भीतर कम पावर वाले बल्ब श्मर-उधर लब्के जल रहे व इई मानना पड़ेगा कि सभी कुछ बढ़ा व्यवस्थित और झास्त श । किले को कोई दृदचड़ी या जल्दी नहीं थी। शुवनेद भी तब्स्थ-सा एक और खड़ा किसी श्रद्धाठ से बाते कर रहा था। नाटक थुरू होने में पि मिनट की देर रद गई थी । सुके तो कॉलेज के, यायों ही शीक्षित नाटक-खेल्नेवालों का अनुभव था। वहाँ तो यह क्षण जीवनन्मए का होता है। पाई याद न द्वोने से हरेक के हाथ-पाँव कॉप रे है। सेट्स बने नहीं होते हैं। भीतर ऐसी भागदौड़ होती दे, जेसे कहीं | न<]| थक ल्‍+ 'ु हक] आग छग गई हो--बाहर ज्यादा भीड़ दे या भोतर यह) तंव करो मुश्किल होता ई--एक्टर के ममेंरे भाई के दोस्त भी अपने भेया व त्रिय्या को देखने, फ्री-पास की सिफ़ारिश करने वा योही आन महत्व सिद्ध करने इधर से उधर घूमा करते हैं। लेकिन यहाँ तो उम कुछ बड़े स्वाभाविक रूप मे चल रहा था । सहसा घण्टी चजी ओर भीतर की रोशनियाँ गुरू हो गई | नह का पर्दा उठा। भीतर रेलवे के बुर्किंग नम्बर लिखें भारी-भारी बंक एक ओर रखे थे, इनमें ये लोग अपने कपड़े या और साज-सा्माः भरकर छाये होंगे **रोशनी गुल होने से पहले मैंने देख लिया था सुवनेश शायद कपड़े बदछे झायद्‌ दूसरी विंगकी ओर वाले ग्रीनत्म * चला गया था**'मैं चुपचाप घानबूककर उन सन्वूकों के पीछे इस तर छिपकर खड़ा हो गया कि स्टेज से आते-जाते छोगों को बिना दीखे देए सकू“>सुे जिद थी और वह क्षण देखना था जब मुवनेझ ऐकटर ' हो । बा मे धड़कन भी थी कि कहीं यहाँ भी फ़ेल हुआ तो” और जो क्षण मैंने देखा, पता नहीं उसे क्या नाम दूँ! वह ई* पड अभिमन्यु की आत्महल रेखा विचित्र क्षण था कि मुझ से फिर वहाँ नहीं रद्दा गया और बिना आगे देखने की चिन्ता किये मैं चछा आया। बह सचमुच मेरी हार पी या जीत यह भी ती नहीं कह सकता । आज भी नहीं कह सकता के उस क्षण वह ऐक्टर था या नहीं अगर उस क्षण भी बह ऐक्टर मी था तो मानना पढ़ेगा कि ऐक्टिय उसका खन बन गई थी'"'उसके जीवन में बह क्षण था ही महीं जिसकी मुझे ततद्यश थी। छेकिन अगर बह उस क्षण ऐक्टर नहीं भा तो" माफ़ कीजिये मुक्ते विश्वास नहीं है... मैरी निगाह स्टेन पर थीं। वहाँ वेटियाँ जन-गम-मन्र अधिनायद भा रही थीं ।०'हॉछ के सभी लोग खड़े ये'*'हो सकता है चगुले-सी चोंच भुकाकर प्रीनरूम में भुवनेश ही खड़ा हो“''मुके नाटक फे बाद का सारा हृतय याद हो आया | इसके बाद उसीकी एण्ट्री है । अचानऊ मैंने देखा मीतर अपधेरे में एक ओर वह लपका चत्य जा रहा हैं। सामनेवाली रोशनी की ओर से आड़ कर के आँखे मलकर शौर से देखा। वहाँ; वह्दी तो है। पूरे मेक-अप में है! लेकिन इधर फहोँ जा रहा है“मुभो याद आया, हर कदम पर जोर देता, मानों घरती को दच्ा-दबाफर चल रहा हो, रूम्वे-लम्वे डगो से वद मिपर चला ना रहा है उधर तो इसकी मा नेंटी है। वह शायद पदी की आड़ में थी। उसते छप्वे-चौड़े काले पे की एक मोटी-सी सल्वट को इधर- उधर कर दिया। मा सामने आ गई, उसने घटनों के बल भूककर मा के चरण छुए और बिना इधर-उधर देखे उन्हीं कदमों से सीट आया मैने इधर-उघर देखा, शायद किन्हीं दर्शकों के लिए यह सारा ऐड्टिंग दो रहा हो'“जहाँ तक मुझे पता है, में दीस नहीं सकता था और दर्शक उसकी मा थी ! “>तो उस दशेक के सामने भी बह ऐिटिंग कर सकता है !***आप विश्वौत्त मानिये--आज मो मुम्ये उस पर कोई श्रद्धा नहीं है । ्ः गेक्टर और भरश्य जाँखें १७ २ अभिमन्यु की आत्महत्या अभिमन्यु की आला-हत्या इ कथा ठह93700, बाह्य प्यी इएवग्रधड़ ॥४5, एध52 ब्भ्लाणा ण €5०॥० |ग03९305. '86३ उित्टटशड ३४४/|4 5776" तु पता है, आज मेरी वर्षगाँठ है और आज में आत्महत्या करने , गवा था ! प्राठम है, आन मैं भात्मइत्या करके छीया हूँ ! अच मेरे पास शायद कोई “आत्म? नहीं बचा, जिसकी हत्या हो णाने का भय हो । चलो, भविष्य के लिये छुट्टी मिली [ किसी ने कहां था कि उस जीवन देने वाके भगवान को कोई दक ' नहीं है कि हमें तरह तरह की मानसिक यातनाओं से गुजञरता देख-देख कर बेठा-बैठा मुर्कुराये, इमारी मजबूरियों पर हँसे। मैं अपने आप से उड़ता रहें, छटपयाता रहूँ, जैसे पानी में पड़ी चौंगी छठ्पराती है; और किमारे पर खड़े शतान बच्चे की तरह भेरी चेशओं पर वह क्लिवारियाँ मारता रे! नहीं, में उसे यह ऋर आनन्द नहीं दे पार्केगा भीर उसका जीवन उसे छौय दृगा। सुम्हे इन मिरथक परिस्थितियों के सक्रव्यूह में डाल कर तू खिलवाड़ नहीं कर पायेगा कि इछ तो तेरी मुन्ने भंबन्द है ही! सही है, कि माँ के पेट में ही मैंने सुन लिया अभिमन्यु की आत्मद्वत्या रै २१ ६७०) इटावा और खण-मद्ठ खुद मंत्र-हंटे सौंप-सा पलट कर व॒स्दारी हो एंड्डी में अपने दाँत गड़ा देगा और नस-नतत से छपकती हुई नीली छइ्टरों के विपचुम्के तीर तुम्थरी चेतना के रध को छलमी फर डाले गे और तुग्दरि रथ के इठे पहिये ध्म्हारी ढाल का काम भी नहीं दे पा्यंगे*** कोई भीम तम्र तुम्हारी रक्षा को नहीं आयेगा । रुऐेंशि इस जकब्यूद से निकलने वर यवत: तुम्हें छियी अर्जुन ने नहीं बताया--ट्सीलिए मुभे आत्महत्या कर लेनी पड़ी और फिर मैं लोट आया--अपने लिये नहीं, परीक्षित के लिये, ताकि यह हर सॉंप से मेरी इस हत्या का ब्रदला ले सके, दर तक्षक छो थज्र की सुयंधिव रोशनी तक खींच लाये । ६०७९ मुझे याद है: में बड़े दी स्थिर कदमों से बाद्घा पर उतय था और ख्छ्वा हुआ “सी” रूट के स्टेण्ड पर आ खड़ा हुआ था | सागर के उस एजन्त किनारे तक जाने छायक पैसे जेब में ये। पास ही मजदूरों का एक वह्ा-सा परिवार धूलिया छुठपाथ पर लेय या। धुआते गइढे जेसे चूरदे की रोशनी में एक घोती में लिपटी छाया पीछानपील मसाद्य पीस रही यी। चूरदे पर कुछ खदक रहा था | पीछे की हृटी बाउण्ड्री से कोई शमती गुनगुनाइट निरुढी और पुछ के नीचे से रोशनी--अऑँधेरे के चारखाने के फीते-सी रेछ सरकती हुई निकछ ग्यी--विले पाले के स्टेशन पर मेरे पास कुल पाँच आने बचे थे । घोड़वन्दर के पार जब दस बजे वाली चस सीधी वेण्ड-स्टेण्ड की प्ररफ दीड़ी तो मैंने अपने आए से कह्या--“वॉट हू आई केयर ! मैं फिमी की किस्ता नहीं करता |” ओर ज्षत बस अन्तिम स्टेज पर आकर खड़ी हो गयी तो में ढालू सड़क पार कर सागर-तट के ऊत्रडू-खाबड़ पत्यरों पर उतर पड़ा | ईरानी ॥/ तों की आसमानी नियोन छाइटें किठ्ी लाइटेद्माउस पी दिशा देती € / भभिमन्यु की आत्महत्या !( ब +